Damrua

माँ मंगला इस्पात @ जनसुनवाई नहीं जन छलावा है…

माॅं मंगला इस्पात की ‘कॉपी-पेस्ट रिपोर्ट’ पर भड़का जनाक्रोश, आसान नहीं होगी कंपनी राह

19 नवंबर की जनसुनवाई से पहले गांवों में उबाल

ग्रामीण बोले — यह रिपोर्ट नहीं, झूठ का दस्तावेज है; नियमों को ताक पर रखकर बनाई गई फर्जी रिपोर्ट पर अब उठे कानूनी सवाल

डमरूआ/रायगढ़। पूर्वांचल क्षेत्र में स्थित माॅं मंगला इस्पात प्राइवेट लिमिटेड एक बार फिर विवादों के केंद्र में है। 19 नवंबर 2025 को प्रस्तावित जनसुनवाई से पहले ही कंपनी की पर्यावरण प्रभाव आकलन (EIA) रिपोर्ट को लेकर ग्रामीणों में तीखा आक्रोश फैल गया है। ग्रामीणों ने इस रिपोर्ट को कॉपी-पेस्ट रिपोर्ट बताते हुए आरोप लगाया है कि यह पुराने प्रोजेक्ट की रिपोर्ट की हूबहू नकल है, जिसमें न तो वास्तविक पर्यावरणीय सर्वेक्षण किया गया और न ही स्थानीय जनजीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का उल्लेख है। ग्रामीणों के अनुसार, रिपोर्ट में आसपास के गांवों का भौगोलिक विवरण तक गलत दिया गया है। कई ऐसे गांवों का उल्लेख है जो इस क्षेत्र से 20–25 किलोमीटर दूर हैं, जबकि वास्तविक प्रभावित गांवों के नाम तक शामिल नहीं किए गए। लोगों का कहना है कि यह रिपोर्ट दफ्तरों में बैठकर तैयार की गई है, न कि धरातल पर।

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फ़ाइल फोटो

ये जनसुनवाई नहीं, जन-छलावा है

गांवों में माहौल अब पूरी तरह विरोध के स्वर में है। ग्रामीणों ने कहा कि प्रशासन ने रिपोर्ट की कॉपी समय पर उपलब्ध नहीं कराई, न ही स्थानीय भाषा में उसका अनुवाद कराया गया। नोटिस तक सही ढंग से नहीं चिपकाए गए। लोगों का आरोप है कि यह पूरी प्रक्रिया केवल औपचारिकता निभाने के लिए की जा रही है ताकि कंपनी को बिना सवालों के मंजूरी मिल सके।
लोगों का कहना है कि यह जनसुनवाई नहीं, जन-छलावा है। हमारी आवाज़ सुने बिना फैसला लिया गया तो गांव का हर नागरिक सड़क पर उतरेगा।

पर्यावरणीय उल्लंघन पर बड़े सवाल

ग्रामीणों ने आरोप लगाया कि प्लांट का हिस्सा वनभूमि में आता है जहां अवैध निर्माण और पेड़ कटाई हुई है। दूषित पानी बिना ट्रीटमेंट के नालों और खेतों में छोड़ा जा रहा है। कंपनी का ईएसपी (Electrostatic Precipitator) महीनों से बंद पड़ा है, जिससे वायु प्रदूषण का स्तर खतरनाक हो गया है। बावजूद इसके, पर्यावरण नियंत्रण बोर्ड ने एक बार भी सैंपलिंग या जांच नहीं की।

ग्रामीणों का कहना है — यहां न कानून है, न नियंत्रण

जनसुनवाई से पहले ही गांव-गांव में हस्ताक्षर अभियान शुरू हो गया है। पर्यावरण कार्यकर्ता और सामाजिक संगठन इस रिपोर्ट को चुनौती देने के लिए प्रशासनिक स्तर पर शिकायत दाखिल करने की तैयारी कर रहे हैं। ग्रामीणों ने साफ कहा है कि हम उद्योग के विरोधी नहीं, लेकिन झूठ और जुगाड़ के खिलाफ हैं। अब गांवों की चुप्पी नहीं, आवाज़ गूंजेगी।

फर्जी रिपोर्ट और बिना ग्रामसभा अनुमति ये दोनों हैं दंडनीय अपराध….

कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार, यदि किसी परियोजना ने झूठी या अधूरी जानकारी देकर पर्यावरण स्वीकृति हासिल की है, तो यह पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 15 के तहत दंडनीय अपराध है — जिसमें 5 वर्ष तक की सजा और 1 लाख रुपये तक जुर्माने का प्रावधान है।
साथ ही पेसा अधिनियम, 1996 के तहत अनुसूचित क्षेत्रों में ग्रामसभा की अनुमति के बिना किसी भी उद्योग की स्थापना अवैध मानी जाती है। इस अधिनियम की धारा 4(k) स्पष्ट कहती है कि ग्रामसभा की सहमति के बिना भूमि अधिग्रहण या उद्योग की स्थापना नहीं की जा सकती। यदि माॅं मंगला इस्पात ने यह प्रक्रिया नहीं अपनाई, तो इसकी वैधता स्वतः संदेह के घेरे में आती है।

जनसुनवाई या जनसुनवाई का नाटक?

माॅं मंगला इस्पात की जनसुनवाई से पहले जिस तरह रिपोर्टों में फर्जीवाड़े की बू आ रही है, वह केवल एक कंपनी की नहीं, बल्कि पूरे सिस्टम की साख पर सवाल है। जनसुनवाई का मतलब होता है जनता की आवाज़ सुनना, उसका जवाब देना, और फिर निर्णय लेना। लेकिन रायगढ़ में यह प्रक्रिया उलटी चल रही है: पहले फैसला, बाद में सुनवाई। पर्यावरणीय रिपोर्टें अब ‘सत्यापन दस्तावेज़’ नहीं, बल्कि ‘स्वीकृति का रास्ता’ बन गई हैं। इसमें न तथ्य हैं, न पारदर्शिता — बस कॉपी-पेस्ट के सहारे ‘औद्योगिक विकास’ का नाम दिया जा रहा है। इस पूरे मामले में प्रशासन की चुप्पी सबसे बड़ा संकेत है कि कहीं न कहीं मौन भी सह-अपराधी है।

कानून कहता है कि प्रकृति की सुरक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी है, लेकिन जब राज्य खुद आंखें मूंद ले, तो जनता को बोलना पड़ता है। 19 नवंबर को रायगढ़ बोलेगा — और यह आवाज़ सिर्फ पर्यावरण की नहीं, अस्तित्व की होगी।

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