धान खरीदी समाप्ति नहीं, भ्रष्टाचार की नई शुरुआत है — मार्च आते-आते समिति से ‘ज़ीरो शर्टेज़ प्रमाणपत्र’ पाने की दौड़ शुरू हो जाती है।
जांजगीर-चांपा।
धान खरीदी सीजन भले 31 जनवरी को खत्म हो जाए,
लेकिन असली खेल तो उसके बाद शुरू होता है —
जब उपार्जन केंद्रों से धान मिलर और संग्रहण केंद्रों की ओर जाता है।
यहीं से शुरू होती है “शर्टेज़ और सेटिंग” की कहानी,
जिसे स्थानीय भाषा में कहा जाता है — भय-दोहन का सीजन।
कैसे होता है शर्टेज़ का खेल
उपार्जन केंद्रों से निकले धान की हर गाड़ी का वजन संग्रहण केंद्र में दर्ज किया जाता है।
यहीं से “कमी” की कहानी लिखी जाती है।
संग्रहण केंद्र प्रभारी जानबूझकर धान का वजन कुछ क्विंटल कम दिखाते हैं,
ताकि बाद में यह “शर्टेज़” बन सके —
यानी कागज़ों में ऐसा लगे कि समितियों से धान कम आया है।
फिर मार्च में शुरू होता है वसूली का दौर
मार्च में जब डीएमओ (जिला विपणन अधिकारी) समितियों से “पूर्णता प्रमाणपत्र” मांगते हैं,
तब बताया जाता है कि –
“आपके केंद्र से भेजे गए धान में इतने क्विंटल की कमी पाई गई है।”
और फिर शुरू होता है “सेटिंग का दौर” —
जहाँ शर्टेज़ ज़ीरो करने के लिए समिति या केंद्र प्रभारी से
धान खरीदी के अनुदान का हिस्सा माँगा जाता है।
सेटिंग पूरी होते ही
कागज़ों पर ज़ीरो शर्टेज़ का प्रमाणपत्र जारी हो जाता है,
और सारे आंकड़े मिल जाते हैं – “मैचिंग”।
इसमें कोई जाँच नहीं होती,
सिर्फ रक़म तय होती है और “निपटान” हो जाता है।
2024–25 में कैसे खेला गया खेल
उदाहरण के तौर पर —
6 मार्च से 12 मार्च 2025 के बीच
जब न तो मिलर ने धान उठाया, न संग्रहण केंद्र ने कोई रसीद बनाई,
फिर भी 40 टन धान का ब्योरा कागज़ों में सीधे संग्रहण केंद्र में पहुँचा हुआ दिखाया गया।
यह सब “सेटिंग पूर्ण” होने के बाद हुआ।
अब बड़ा सवाल उठता है —
12/03/2025 को जो धान संग्रहण केंद्र में दर्ज दिखाया गया, वह किस–किस गाड़ी से आया?
उन गाड़ियों की तौल पर्चियाँ कहाँ हैं?
क्या उन पर्चियों को सार्वजनिक नहीं किया जाना चाहिए?
जब हर खरीद, हर परिवहन अब ऑनलाइन पोर्टल से जुड़ा है,
तो फिर जनता से ये दस्तावेज़ क्यों छिपाए जा रहे हैं?
‘चारागाह’ बन चुका है सिस्टम
सहकारिता से जुड़े सूत्र बताते हैं कि
संग्रहण केंद्रों से लेकर मिलरों तक का यह पूरा नेटवर्क
“सेटिंग” और “शर्टेज़ समायोजन” की फाइलों में पलता है।
यहाँ नेता, अधिकारी और ठेकेदार
सब अपने-अपने हिस्से का लाभ सुनिश्चित कर लेते हैं।
जिस कर्मचारी या समिति प्रभारी ने “सेटिंग” से इनकार किया,
वह “गुम बारदाने” या “कमी धान” का आरोपी बना दिया जाता है।
सूचना का अधिकार भी बेअसर
सबसे बड़ी विडंबना यह है कि
धान खरीदी और संग्रहण से जुड़े दस्तावेज़ों को सूचना के अधिकार के दायरे से बाहर रखा गया है।
यानी नागरिक चाहकर भी यह नहीं जान सकते कि
12 मार्च को कौन-सी गाड़ी से धान आया,
कितना आया, और किसके आदेश पर दर्ज हुआ।
इस तरह पारदर्शिता का पूरा सिद्धांत ही निष्प्रभावी बना दिया गया है।
जनता के सवाल फिर वही हैं
12 मार्च 2025 को आए धान की गाड़ियों की तौल पर्चियाँ सार्वजनिक क्यों नहीं की जा रही हैं?
अगर 40 टन धान “कागज़ों में पहुँचा” दिखाया गया, तो उसका वास्तविक परिवहन रिकॉर्ड कहाँ है?
क्या जिला विपणन अधिकारी, संग्रहण केंद्र प्रभारी और मिलर की मिलीभगत पर कोई ऑडिट होगा?
या फिर यह मामला भी “कागज़ी जांच” की फाइलों में बंद होकर रह जाएगा?
धान खरीदी का यह खेल सिर्फ अनाज का नहीं, बल्कि व्यवस्था की पारदर्शिता का भी दोहन है।
जब 12 मार्च जैसी घटनाओं की तौल पर्चियाँ तक जनता से छिपाई जाएँ,
तो यह साबित करता है कि भ्रष्टाचार अब नीतियों में नहीं,
बल्कि नीतियों के नाम पर पनपने वाले “सिस्टम” में समा चुका है।


























