छत्तीसगढ़ के पामगढ़ विधानसभा क्षेत्र से वायरल हुआ एक कथित ऑडियो क्लिप, जिसमें विधायक शेषराज हरबनश पर रेत माफिया से अवैध वसूली का आरोप है,
ने न केवल राजनीतिक हलकों में हड़कंप मचाया है, बल्कि प्रशासनिक जवाबदेही पर भी गंभीर सवाल खड़े किए हैं। इस ऑडियो में जांजगीर-चांपा के कलेक्टर और एसडीएम का नाम स्पष्ट रूप से लिया गया है, फिर भी 48 घंटों से अधिक समय बीतने के बाद न तो कोई FIR दर्ज हुई है और न ही जिला प्रशासन या पुलिस ने जांच के आदेश जारी किए हैं। यह चुप्पी न केवल संदेह को जन्म देती है, बल्कि लोकतांत्रिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को भी कठघरे में खड़ा करती है।
ऑडियो का सच और सवाल
ऑडियो में कथित रूप से विधायक 9 लाख रुपये की मासिक वसूली की बात करती हैं, जिसमें 5 लाख उनका हिस्सा और 2-2 लाख कलेक्टर व एसडीएम के लिए बताए गए हैं। यह महानदी के रेत घाटों पर चल रहे अवैध खनन के धंधे को उजागर करता है, जो छत्तीसगढ़ में कोई नई बात नहीं। लेकिन इस बार मामला इसलिए गंभीर है, क्योंकि इसमें सीधे तौर पर वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारियों का नाम लिया गया है। सवाल उठता है: क्या यह ऑडियो वास्तव में भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों को उजागर करता है, या यह AI-जनरेटेड फर्जीवाड़ा है, जैसा कि कांग्रेस दावा कर रही है? जवाब जो भी हो, इसकी सत्यता जांचे बिना प्रशासन की खामोशी चिंताजनक है।
प्रशासन की निष्क्रियता: जवाबदेही कहां?
भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता सी आर पी सी और नए बी एन एस एस 2023 के तहत, गंभीर आरोपों पर तुरंत FIR दर्ज करना पुलिस का दायित्व है।
सुप्रीम कोर्ट के ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014) के फैसले के अनुसार, यदि सूचना की विश्वसनीयता संदिग्ध है, तो 7-15 दिनों की प्रारंभिक जांच की जा सकती है। पुलिस अधीक्षक के पास सी आर पी सी धारा 154 और पुलिस एक्ट, 1861 के तहत बिना FIR के जांच शुरू करने का अधिकार है। कलेक्टर भी माइंस एंड मिनरल्स एक्ट, 1957 या सी आर पी सी धारा 202 के तहत प्रशासनिक जांच शुरू कर सकता है। लेकिन इन प्रावधानों के बावजूद, जांजगीर-चांपा प्रशासन की ओर से कोई कदम न उठाना क्या दर्शाता है? क्या यह उच्च अधिकारियों की संलिप्तता का डर है, या राजनीतिक दबाव का परिणाम?
48 घंटों से अधिक समय तक कोई प्रेस विज्ञप्ति, कोई बयान, और कोई जांच का आदेश न देना न केवल प्रशासनिक लापरवाही है, बल्कि यह जनता के भरोसे को कमजोर करता है। यदि ऑडियो फर्जी है, तो आईटी एक्ट की धारा 66डी के तहत इसकी जांच होनी चाहिए। यदि सच है, तो आईपीसी धारा 420, 506, और प्रवेशन ऑफ़ करप्शन एक्ट की धारा 7/13 लागू हो सकती हैं। दोनों ही स्थितियों में कार्रवाई जरूरी है।
राजनीति का खेल या भ्रष्टाचार का पर्दाफाश?
इस मामले में राजनीतिक रंग भी साफ दिखता है। बीजेपी इसे कांग्रेस के खिलाफ हथियार बना रही है, जबकि कांग्रेस इसे “षड्यंत्र” बता रही है। लेकिन दोनों पक्षों की ओर से FIR न दर्ज कराना अपने आप में सवाल उठाता है। यदि विधायक को लगता है कि ऑडियो फर्जी है, तो उन्हें तुरंत कानूनी कदम उठाना चाहिए था। उसी तरह, बीजेपी को भी जांच की मांग के साथ मजिस्ट्रेट के पास सी आर पी सी 156(3) के तहत याचिका दायर करनी चाहिए थी। यह खींचतान जनता को भ्रमित करने के अलावा और कुछ नहीं कर रही, पामगढ़ ऑडियो लीक मामला छत्तीसगढ़ में रेत माफिया और प्रशासनिक भ्रष्टाचार की गहरी जड़ों की ओर इशारा करता है। सरकार और प्रशासन को चाहिए कि तुरंत एक स्वतंत्र जांच समिति बनाए, जिसमें फोरेंसिक विशेषज्ञ शामिल हों। ऑडियो की प्रामाणिकता की जांच, चाहे वह AI-जनरेटेड हो या वास्तविक, तत्काल होनी चाहिए। यदि आरोप सही हैं, तो दोषियों पर सख्त कार्रवाई हो। यदि यह फर्जीवाड़ा है, तो इसके पीछे के मास्टरमाइंड को बेनकाब किया जाए।
प्रशासन की चुप्पी और देरी इस मामले को और संदिग्ध बना रही है। यदि यह सिलसिला जारी रहा, तो यह न केवल छत्तीसगढ़ सरकार की विश्वसनीयता पर सवाल उठाएगा, बल्कि जनता का लोकतांत्रिक संस्थाओं पर भरोसा भी डगमगा सकता है। समय है कि प्रशासन अपनी जवाबदेही निभाए और सच को सामने लाए – चाहे वह भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो या राजनीतिक साजिश का।