चांपा जमींदारी का अपना एक उज्जवल इतिहास है। यहां के जमींदार शांतिप्रिय, प्रजावत्सल और संगीतानुरागी थे। धार्मिक और उत्सवप्रिय तो वे थे ही, कदाचित् यही कारण है कि चांपा में नवरात्रि में समलेश्वरी, मदनपुर में महामाया देवी और मनिका माई, रथ द्वितीया में भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा जी की रथयात्रा, जन्माष्टमी में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव, रासलीला और गणेश चतुर्थी से गणेश पूजा उत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जाता रहा है।
गणेश पूजा उत्सव पूरे छत्तीसगढ़ में अनूठा होता था।
यहां का “रहस बेड़ा´´ उस काल की कलाप्रियता का साक्षी है। पहले गणेश उत्सव रहसबेड़ा में ही होता था। यूं तो रहसबेड़ा चांपा के आसपास अनेक गांव में है जहां भगवान श्रीकृष्ण की रासलीला का मंचन होता है। लेकिन जमींदारी का सदर मुख्यालय होने के कारण यहां का रहसबेड़ा कलाकारों को एक मंच प्रदान करता था जहां कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करके पुरस्कृत होता था। यहां पर अनेक प्रकार के गम्मत, रामलीला, रासलीला, नाटक, नृत्य आदि का आयोजन किया जाता था। आज इस प्रकार के आयोजन गली-मुहल्ले, चौराहों में बेतरतीब ढंग से होता है। आपपास के गांवों से हजारों लोग इसे देखने आते हैं। भीड़ इतनी अधिक होती है कि पैदल चलना दूभर हो जाता है। खासकर अनंत चौदस को तो रात भर अन्यान्य कार्यक्रम होते थे।
चाम्पा में गणेश उत्सव की शुरूवात जमींदार श्री नारायण सिंह के शासन काल में शुरू हुआ। वे संगीतानुरागी, धर्मप्रिय और प्रजावत्सल थे। उन्होंने ही यहां जगन्नाथ मंदिर का निर्माण आरंभ कराया जिसे उनके पुत्र प्रेमसिंह ने पूरा कराया। इनके शासनकाल में ही यहां रायगढ़ के गणेश मेला के बाद सम्पूर्ण छत्तीसगढ़ का दूसरा बड़ा गणेश उत्सव होता था।
नारायण सिंह के बाद प्राय: सभी जमींदारों ने इस उत्सव को जारी रखा। उस काल के गणेश उत्सव का बखान लोग आज भी करते नहीं अघाते। महल परिसर में गणेश जी की भव्य प्रतिमा की प्रतिष्ठा की जाती थी। इसके अलावा सोनारपारा, देवांगनपारा के चौराहों में गणेश जी की प्रतिमा रखी जाती थी। आसपास के गांवों की गम्मत पार्टी, नृत्य मंडली, रामलीला और रासलीला की मंडली यहां आती थी। अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। लगभग 15 दिन तक उत्सव का माहौल होता था। उस समय यहां दुर्ग, राजनांदगांव, रायपुर, कमरीद, बलौदा, अकलतरा, नरियरा, कोसा, कराईनारा, रायखेड़ा, गौद, पिसौद और शिवरीनारायण आदि अनेक स्थानों से सांस्कृतिक मंडलियां यहां आती थी। कमरीद के बिजली बेलन गम्मत मंडली के प्रमुख धरमलाल गीतकार ही नहीं बल्कि एक अच्छे कलाकार भी थे।
वे अक्सर गाते थे :- ` ए हर नोहे कछेरी, हाकि मन बैठे बैठे खेलत हेगरि…।´ इस प्रकार उनकी गीतों में व्यंग्य का पुट होता था। दादू सिंह का रासलीला और गम्मत यहां बहुत सराहे जाते थे। नरियरा के ठाकुर विशेश्वरसिंह, रायगढ़ के भीखमसिंह, पंडित कार्तिकराम और बर्मनलाल जैसे चोटी के कलाकार, कत्थक नर्तक, तबला वादक और संगीतकार यहां शिरकत करने आते थे। इस आयोजन का पूरा खर्च जमींदार अपने खजाने से वहन करते थे। चाम्पा के जमींदार श्री रामशरणसिंह के शासनकाल में यहां का गणेश उत्सव चरम सीमा पर था। इस आयोजन में इतना खर्च हुआ कि सन् 1926 में चाम्पा जमींदारी को “कोर्ट ऑफ वार्ड्स´´ घोषित कर दिया गया। उन्होंने ही यहां `रहस बेड़ा´ का निर्माण कराया था।
अनंत चतुर्दशी को विसर्जन पूजा के बाद नगर की सभी गणेश प्रतिमाएं महल में लायी जाती थी और एक साथ बाजे-गाजे और करमा नृत्य मंडली के नृत्य के साथ पूरे नगर का भ्रमण करती हुई डोंगाघाट पहुंचकर हसदो नदी में विसर्जित कर दी जाती थी। आज भी यहां बहुत संख्या में नृत्य मंडली, गम्मत पार्टी, आर्केष्ट्रा और छत्तीसगढ़ी नाचा आदि का आयोजन होता था।
पंरतु चांपा के इस ऐतिहासिक महत्व के आयोजन को करोना काल से प्रशासन की ऐसी नजर लगी की आज लगभग अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है।
आश्चर्य की बात है कि छत्तीसगढ की सांस्कृतिक विरासत को सहेजने और आगे बढ़ने की बात करने वाली , भुपेश बघेल के शासन काल मे चांपा की 150 साल पुरानी सांस्कृतिक विरासत को खत्म करने में उसी के प्रशासनिक अधिकारी कितने तत्पर है।
यू भी चांपा के साथ सौतेला व्यवहार हमेशा से देखने को मिला हैं। यदि चांपा का यह सांस्कृतिक विरासत खत्म भी हो जाय तो आश्चर्य की बात नही होगी। क्योंकी चांपा के जनप्रतिनिधियों को इस बात से कोई सरोकर नही है। चांपा के जनप्रतिनिधि केवल अपने पार्टी गत स्वहित को ही सर्वोपरी मानते